top of page

Sourav Roy

दादी और आटा

“गेहूँ से
दलिया
सूजी से गुज़रकर
मैदे से ज़रा पहले
जब गेहुआँ रंग अन्दर के सादे रंग में
बदल ही रहा होता है
जन्म लेता है आटा”

कह पानी की बूँद
बदल जाती है पारे की हलकी बूँदों में
दोनों हाथों की सीप में लोई सहेजती दादी
बदल जाती है कुम्हार
किसान में
मिट्टी सानती
हल जोतती
गूंधती है आटा

बगल बैठी गुड़िया
आटे की खड़िया से लिखती है
‘अ’ से आटा
गेंद हाथी घोड़ा आटे के
खिलौनों से खेलती है
फिर आटे की मुलायम रबड़ से
हड़बड़ाकर मिटाती है ‘भ’ से भूख

फिर अन्दर से आती एक स्वादिष्ट महक
कानों में भाप भरती है
रोटी-सी फूलती पिचकती दादी
सुनाती है चाँद की लोरी
और गुड़िया धँसती चली जाती है
इस गुँथी हुई दुनिया की
सबसे गुलगुल लोई में!

bottom of page